लंकापति रावण का मूत्रकुंड – लंकापति रावण न केवल बुद्धिमान था, बल्कि महान शिव भक्त भी था। लंकापति रावण की शिवभक्ति की बहुत चर्चा होती है, लेकिन क्या आप जानते हैं? एक बार रावण भगवान शिव को अपने गले में शिवलिंग के रूप में रखकर लंका की ओर जा रहा था, लेकिन रास्ते में उसे शौच लग गया और उसके मूत्र से एक कुंड बन गया। रावण का मूत्रालय कैसे बना और भारत में यह मूत्रालय कहाँ स्थित है? आइये जानते हैं विस्तार से –
लंकापति रावण का मूत्रकुंड – क्या है कहानी?
लंकापति रावण भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था, जिसके लिए वह चाहता था कि भगवान शिव उसके साथ लंका में रहें,
रावण ने एक बार पूरे कैलाश पर्वत को लंका में लाने की कोशिश की, लेकिन रावण असफल रहा। रावण ने कई बार शिव को लंका ले जाने की कोशिश की, लेकिन वह हर बार असफल रहा।
रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया और भगवान शिव ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया। रावण ने भगवान शिव से आग्रह किया कि वह शिवलिंग के रूप में उसके साथ लंका जाएं। भगवान शिव ने रावण को यह शर्त दी कि वह शिवलिंग को वहां तक ले जाए, लेकिन रास्ते में उसे किसी भी हालत में शिवलिंग को कहीं भी नीचे नहीं रखना होगा। अगर ऐसा हुआ, तो शिवलिंग वहीं स्थापित हो जाएगा।
रावण ने शिवलिंग को उठाकर लंका की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में भगवान विष्णु ने एक चाल चली। उन्होंने एक छोटे से चरवाहे का रूप लिया और रावण के रास्ते में खड़े हो गए। लेकिन रावण को शौच की आवश्यकता महसूस हुई, और उसने लड़के से कहा कि वह थोड़ी देर के लिए शिवलिंग को पकड़ ले। लड़का सहमति दे देता है और रावण शौच के लिए चला जाता है।
रावण लंबे समय से शिवलिंग को अपने कंधे पर उठाए हुए चल रहा था, लेकिन बीच रास्ते में उसे लघुशंका का अहसास हुआ। उसने मार्ग में एक अहीर को देखा और शिवलिंग उसे थमा दिया, यह आदेश देते हुए कि वह शिवलिंग को भूमि पर न रखे। रावण लघुशंका के लिए चला गया। जब रावण लघुशंका के लिए गया तो विष्णुजी ने नदी को रावण के पेट मे स्थापित कर दिया। वह लगातार लघुशंका करते रह गया जिससे उस जगह पर एक कुंड का निर्माण हो गया । आज के समय में इसे ही रावण का मुत्रकुंड कहा जाता है ।
इस बीच, देवाधिदेव महादेव ने अपनी लीला रची और शिवलिंग का वजन धीरे-धीरे बढ़ने लगा। जब अहीर को यह भारी महसूस हुआ, तो उसने अंततः शिवलिंग को जमीन पर रख दिया और रावण के क्रोध से डरते हुए वहां से भाग गया। जब रावण वापस आया, तो वह स्तब्ध रह गया और उसे अहीर के इस कृत्य पर बहुत क्रोध आया।
लेकिन उसने अपने क्रोध को नियंत्रित करते हुए शिवलिंग को पूरी ताकत से उठाने का प्रयास किया। हालांकि महादेव उस स्थान से टस से मस नहीं हुए। अंत में, रावण निराश होकर वहां से चला गया और जाते वक्त उसने शिवलिंग पर अपना अंगूठा गाड़ दिया।
तब से यहीं बैद्यनाथ महादेव वास करने लगे और उन्हें इसी रूप में पूजा जाने लगा।
तुलसीदास के अनुसार ऐसी कथायें सिर्फ मनुष्य को उसकी हद बताने के लिये ही लिखीं गईं हैं । इसका मतलब ये नहीं है कि ये कोई काल्पनिक कथा है वरन ऐसी पूर्व में हुई घटनाओं को कथा रूप में प्रकट कर मनुष्यों के लिये उदाहरण पेश किये गये हैं। ताकि हम ये समझें कि हमें कब कैसे कहां और क्या करना चाहिए।
कहा जाता है हरि इच्छा से बडी कोई चीज नहीं होती । वह वचन में बंध कर उसे शिवलिंग देने पर विवश तो हो गए पर भगवान नहीं चाहते थे इस लिए उन्होंने परिस्थिति इस तरह की बना दी कि रावन शिव लिंग लंका तक नहीं ले जा सका । वही होता है जो ईश्वर की इच्छा होती है ।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ी कुछ अन्य जानकारी
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग हिंदू धर्म के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और यह भगवान शिव का प्रमुख स्थल है। यह मंदिर झारखंड राज्य के देवघर जिले के समीप स्थित है, जो दुमका क्षेत्र में पड़ता है, और इसे बाबा धाम के नाम से भी जाना जाता है। यह एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहां लाखों भक्त हर साल विशेष अवसरों पर पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार, जो भी भक्त बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और भगवान शिव की कृपा प्राप्त करता है। यह मंदिर विशेष रूप से उन लोगों के लिए पुण्य अर्जन का स्थान माना जाता है जो जीवन की कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं। इसे पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना जाता है।
बैद्यनाथ मंदिर में महाशिवरात्रि और सावन महीने के दौरान विशेष पूजा-अर्चना होती है। इन दिनों लाखों शिवभक्त विशेष रूप से कांवड़ लेकर गंगा जल लाते हैं और बाबा बैद्यनाथ के शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। सावन और महाशिवरात्रि के दिन इस मंदिर में विशेष आयोजन होते हैं और इन अवसरों पर भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।
बैद्यनाथ का नाम “बैद्य” (चिकित्सक) और “नाथ” (स्वामी) के संयोजन से लिया गया है, क्योंकि पौराणिक कथाओं में यह कहा जाता है कि भगवान शिव ने रावण को उनके सभी रोगों का इलाज किया था। यहां भगवान शिव का रूप चिकित्सा और रोग निवारण से जुड़ा हुआ है, इसलिए यह स्थान “बैद्यनाथ” के नाम से प्रसिद्ध है।
बैद्यनाथ मंदिर की वास्तुकला भी बहुत प्रसिद्ध है। यह मंदिर प्राचीन काल से अस्तित्व में है और इसके निर्माण में हिन्दू मंदिर वास्तुकला का अनुसरण किया गया है। मंदिर का मुख्य गुंबद शिवलिंग के ऊपर स्थित है, जो सफेद संगमरमर से निर्मित है। यहां पर एक विशाल मंडप है जहां भक्त पूजा करते हैं और बाबा बैद्यनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग में हर साल लाखों भक्तों का आगमन होता है, विशेषकर महाशिवरात्रि और सावन माह में। कांवड़ यात्रा के दौरान, भक्त कांवड़ में गंगा जल भरकर पैदल चलते हुए इस स्थान पर पहुंचते हैं और जल चढ़ाकर भगवान शिव की पूजा करते हैं। इसके अलावा, देवघर में एक मेले का आयोजन भी होता है, जहां भक्त विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।
कांवड़ यात्रा भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस दौरान शिवभक्त अपने कांवड़ में गंगा जल भरकर नंगे पांव चलते हुए बैद्यनाथ धाम पहुंचते हैं। यह यात्रा आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है, और यह दर्शाती है कि भक्त भगवान शिव के प्रति अपनी निष्ठा और विश्वास को कैसे व्यक्त करते हैं।
Written By Professor Shiv Chandra Jha Mo:- 9631487357 M.A In Dharmashastra shiv.chandra@praysure.in -लंकापति रावण का मूत्रकुंड
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