अंग न्यास मंत्र- न्यास एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधना और पूजा पद्धति है, जो हमारे शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध करने तथा देवताओं के साथ आध्यात्मिक एकता स्थापित करने के लिए की जाती है। यह एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा साधक अपने शरीर और मन को दिव्य शक्तियों से जोड़ता है। न्यास का अर्थ है ‘स्थापना’ अर्थात शरीर के प्रत्येक अंग में देवताओं या उनकी शक्तियों का प्रतिष्ठान करना। यह साधना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है।
‘अस’ धातु में ‘नि’ उपसर्ग जोड़ने पर ‘न्यास’ शब्द का निर्माण होता है। ‘अस’ धातु के दो मुख्य अर्थ होते हैं—एक, किसी वस्तु को हटाना (क्षेपण करना), और दूसरा, किसी वस्तु को स्थापित करना (स्थापन करना)। इस प्रकार, यदि कोई वस्तु अपने सही स्थान पर नहीं हो, तो उसे वहां से हटाकर, उचित स्थान पर स्थापित करना ही न्यास कहलाता है।
इस प्रक्रिया का उद्देश्य साधना में शरीर को सही रूप में स्थापित करना और ऊर्जा को संतुलित करना होता है, ताकि साधक अपनी साधना में सफलता प्राप्त कर सके।
न्यास का महत्व:
- शरीर को दिव्य बनाना: न्यास के माध्यम से, शरीर को देवताओं से अभिशप्त और दिव्य बनाना जाता है। जब शरीर के प्रत्येक रोम, अणु, और अंग में देवता का वास स्थापित होता है, तो शरीर एक पवित्र मन्दिर की तरह बन जाता है। इस स्थिति में मन विचलित नहीं होता और केवल शुद्ध चैतन्य रहता है।
- शुद्धि की आवश्यकता: न्यास से पहले, शरीर में अपवित्रता होती है जो ध्यान, पूजा, या अन्य आध्यात्मिक कर्मों के लिए अवरोध उत्पन्न करती है। न्यास के द्वारा इन अवरोधों को हटाकर मन और शरीर को शुद्ध किया जाता है। यह साधना न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक शुद्धि के लिए भी प्रभावी होती है।
- देवत्व की प्राप्ति: शास्त्रों में यह कहा गया है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मंत्रसिद्धि होती है। शरीर के भीतर और बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का वास स्थापित करने से साधक को अदम्य उत्साह और नई चेतना का अनुभव होता है। यह साधना, साधक को अपने इष्टदेवता से एकत्व का अनुभव कराती है।
- आध्यात्मिक और लौकिक लाभ: न्यास केवल आध्यात्मिक लाभ ही नहीं देता, बल्कि इससे लौकिक लाभ भी प्राप्त होते हैं। यह साधक के जीवन को शुद्ध और समृद्ध बनाता है, जिससे वह अपने हर कार्य में सफलता प्राप्त करता है। इस साधना से मनोवांछित इच्छाएं पूर्ण होती हैं और साधक का आत्मविश्वास बढ़ता है।
न्यास के प्रकार:
- कर न्यास: कर न्यास में हाथ के अंगों, जैसे कि अंगूठा और अनामिका के द्वारा शारीरिक स्थानों पर देवता और उनके मंत्रों का अभिषेक किया जाता है। इस विधि में मुख्य रूप से हाथों की मुद्रा और स्पर्श द्वारा देवताओं का आवाहन किया जाता है।
- अंग न्यास: अंग न्यास में शरीर के विभिन्न अंगों में देवताओं की स्थापना की जाती है। यह शरीर के विभिन्न भागों में ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। अंग न्यास का उद्देश्य शरीर के हर अंग को दिव्य और शुद्ध बनाना है।
- ऋष्यादि न्यास: इस न्यास में ऋषि, देवता, छंद और बीज मंत्रों की स्थापना की जाती है। यह उन मंत्रों के साथ संयोजन करता है जो साधक के लिए विशेष रूप से लाभकारी होते हैं। इसमें विशेष ध्यान उस मंत्र की शक्ति और उसकी विधि पर केंद्रित किया जाता है।
- मंत्र न्यास: मंत्र न्यास में, विशेष मंत्रों का अनुसरण किया जाता है और उन मंत्रों की शक्ति को शरीर के विभिन्न अंगों में समाहित किया जाता है। यह मंत्र की ऊर्जा को शरीर में प्रवाहित करता है, जिससे साधक को आध्यात्मिक उन्नति होती है।
- मातृका न्यास: यह न्यास मातृका, अर्थात देवी के रूपों और शक्तियों के साथ जुड़ा हुआ है। इसमें साधक देवी शक्ति के विभिन्न रूपों का ध्यान करता है और उनकी शक्ति को शरीर में स्थापित करता है।
- व्यापक न्यास: इस न्यास में केवल शरीर के अंगों के बजाय समग्र ब्रह्मांड की दिव्य शक्तियों का सम्मिलन किया जाता है। इसे एक प्रकार से संपूर्ण ब्रह्मांड को अपने भीतर समाहित करने का प्रयास माना जा सकता है।
- षोढान्यास: यह एक विस्तृत और गहन प्रक्रिया है, जिसमें 16 प्रमुख न्यास विधियों का पालन किया जाता है। इसका उद्देश्य पूरी तरह से शरीर और मन को शुद्ध करना और दिव्य ऊर्जा से पूर्ण रूप से जोड़ना है।
अंगन्यास के बारे यहाँ चर्चा की जा रही है।
अंग न्यास मंत्र एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक क्रिया है, जो षडङ्गन्यास का एक विशेष भाग है। यह साधक द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों का क्रमबद्ध स्पर्श करके एक विशेष प्रकार की ऊर्जा को सक्रिय करने का प्रयास है। इसका उद्देश्य ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का पिण्डीय ऊर्जा में अवतरण और आत्मसात करना है। यहां हम अंगन्यास के विभिन्न पहलुओं और उनके प्रयोजनों पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।
1. अंगन्यास की प्रक्रिया:
अंगन्यास में सबसे पहले दोनों हाथों की अंगुलियों को क्रमशः मंत्र-पूरित स्पर्श किया जाता है। यह प्रक्रिया आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के तत्त्वों को संतुलित करने के लिए होती है। इन तत्त्वों का सही संयोजन शारीरिक और मानसिक ऊर्जा के प्रवाह को सक्रिय करता है, जो साधक को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
स्पर्श का क्रम इस प्रकार है:
- ऊँ… अंगुष्ठाभ्यां नमः (अंगूठे से)
- ऊँ… तर्जनीभ्यां नमः (तर्जनी से)
- ऊँ… मध्यमाभ्यां नमः (मध्यमा से)
- ऊँ… अनामिकाभ्यां नमः (अनामिका से)
- ऊँ… कनिष्ठाभ्यां नमः (कनिष्ठिका से)
- ऊँ… करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः (हाथ के तलवे और पृष्ठ से)
यह पूरी प्रक्रिया अनुभव-पूर्ण होनी चाहिए, ताकि ऊर्जा का प्रवाह सही तरीके से हो सके। प्रारम्भ में सिर्फ अंगों का स्पर्श पर्याप्त होता है, और बाद में इसे मंत्र के साथ किया जाता है।
2. हृदयादि अंगों का क्रमशः स्पर्श:
इसके बाद साधक हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र, और अस्त्र आदि अंगों का क्रमशः स्पर्श करता है, और मंत्रों का मानसिक उच्चारण करता है। यह क्रिया साधक के शरीर और मन को शुद्ध करने में सहायक होती है। प्रमुख मंत्रों में नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट्, और फट् होते हैं, जो क्रमशः शरीर के विभिन्न अंगों से जुड़े होते हैं:
- ऊँ… हृदयाय नमः (हृदय को नमस्कार)
- ऊँ… शिरसे स्वाहा (शीर्ष को समर्पण)
- ऊँ… शिखायै वषट् (शिखा को तेज़ के रूप में समाहित करना)
- ऊँ… कवचाय हुँ (कवच को मानसिक रूप से धारण करना)
- ऊँ… नेत्रत्रयाय वौषट् (तीनों नेत्रों को चैतन्य बनाना)
- ऊँ… अस्त्राय फट् (अस्त्र को त्रिविध तापों से नष्ट करना)
3. षडङ्गन्यास के छह पदों का अर्थ:
- नमः (हृदय): हृदय में विनम्रता, प्रेम, करुणा और भक्ति का स्थान है। इसका उद्देश्य साधक को अनात्म पदार्थों से अलग करना है, ताकि वह आत्मा के साक्षात्कार में सफल हो सके।
- स्वाहा (शिर): यह अहंकार के विसर्जन का संकेत है। साधक आत्मा को शीर्ष स्थान पर स्थापित कर, स्वयं को समर्पित कर देता है।
- वषट् (शिखा): यह तेज का प्रतीक है। साधक आराध्य के तेज को आत्मसात करने का प्रयास करता है, जैसे हम बाह्य ऊर्जा को आत्मसात करने के लिए शिखा का उपयोग करते हैं।
- हुं (कवच): साधक अपने शरीर को एक सुरक्षा कवच से आच्छादित करता है, ताकि वह त्रिविध तापों से मुक्त हो सके।
- वौषट् (नेत्र): यह क्रिया सुप्त नेत्र को चैतन्य करने का प्रयास करती है, जो आत्मज्ञान की कुंजी माना जाता है। इसे आज्ञाचक्र के माध्यम से किया जाता है।
- फट् (अस्त्र): यह त्रिविध तापों का निवारण करने की भावना से किया जाता है। इसे अग्नि और वायु तत्वों के सहयोग से प्रचंड किया जाता है।
4. अंगन्यास का उद्देश्य:
अंगन्यास का मुख्य उद्देश्य शरीर और मन में दिव्य ऊर्जा का प्रवाह सक्रिय करना है। यह प्रक्रिया साधक को आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करती है और उसे बाह्य ऊर्जा से जोड़ने के लिए तैयार करती है। प्रत्येक अंगन्यास का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है, जो साधक के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।
5. गुरु का महत्त्व:
अंगन्यास और षडङ्गन्यास की सफलता में गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है। गुरु के निर्देशन से ही साधक इन प्रक्रियाओं को सही ढंग से समझ सकता है और प्रभावी रूप से इसका पालन कर सकता है।
इस प्रकार, अंग न्यास मंत्र न केवल एक शारीरिक क्रिया है, बल्कि यह मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का भी एक महत्वपूर्ण साधन है।
अंग न्यास मंत्र के विभिन्न पदों का विश्लेषण
- नमः (हृदय): नमन (झुकना) में विनम्रता छिपी होती है। प्रेम, करुणा, विनम्रता आदि का स्थान हृदय है। इस न्यास का उद्देश्य है – समस्त अनात्म पदार्थों से विवेक पूर्वक स्वयं को विलग करने का प्रयास।
- स्वाहा (शिर): आत्मा को शीर्ष स्थान पर स्थापित कर, स्वयं को उसके समक्ष समर्पित कर देना। यह अहंकार के विसर्जन का संकेत है।
- वषट् (शिखा): आराध्य के तेज को आत्मसात करने का प्रयास। शिखा-देश का स्पर्श करके बाह्यतेज का संग्रहण करना।
- हुँ (कवच): साधक सर्वात्मदेह से आच्छादित होकर, सर्वथा सुरक्षित होने की भावना करता है। इस न्यास का उद्देश्य है – त्रिविध तापों का निवारण।
- वौषट् (नेत्र): योगशास्त्र का संकेत देते हुए सुप्त नेत्र को चैतन्य करने का प्रयास।
- फट् (अस्त्र): त्रिविध तापों का निवारण करना, ज्ञानाग्नि में भस्म करने की भावना।
अंग न्यास मंत्र का प्रभाव:
- शुद्धि और दिव्यता: न्यास के द्वारा शरीर और मन की शुद्धि होती है। यह साधक को मानसिक शांति और शुद्धता का अनुभव कराता है। जब शरीर और मन में देवताओं की शक्ति का समावेश होता है, तो हर कार्य में सफलता और समृद्धि का अनुभव होता है।
- विघ्नों का नाश: न्यास के द्वारा साधक अपने जीवन में आने वाले सभी विघ्नों को समाप्त करता है। यह अहंकार, क्रोध, मोह, और अन्य विकारों से छुटकारा दिलाता है और व्यक्ति को मानसिक रूप से मजबूत बनाता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: न्यास एक साधना विधि है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करती है। इसके द्वारा साधक अपने आंतरिक दिव्य स्वभाव को पहचानता है और भगवान के साथ एकता का अनुभव करता है।
अंग न्यास मंत्र निष्कर्ष:
न्यास केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक साधना है, जो व्यक्ति के भीतर देवत्व का जागरण करती है। यह साधना के विभिन्न पहलुओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और साधक को शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक शुद्धता की ओर मार्गदर्शन करती है।
Written By Professor Shiv Chandra Jha Mo:- 9631487357 M.A In Dharmashastra shiv.chandra@praysure.in
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